SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनपदसंग्रह. ३४ भोजनवत कहा, अंत विरसता न धारै रे ॥ निज० ॥ ४ ॥ भागचन्द् भवअंधकूपमें, धर्म रतन काहे डारे रे ॥ ॥ निज का० ॥ ५ ॥ ६३. हरी तेरी मति नर कौनें हरी । तजि चिन्तामन कांच ग्रहत शठ ॥ टेक ॥ विषय कपाय रुचत तोकौं नित, जे दुखकरन अरी । हरी तेरी० ॥ १ ॥ सांचे मित्र सुहितकर श्रीगुरु, तिनकी सुधि विसरी । हरी तेरी० ॥ २ ॥ परपरनति में आपो मानत, जो अति विपति भरी । हरी तेरी० ॥ ॥ ३ ॥ भागचन्द जिनराज भजन कहुं, करत न एक घरी । हरी तेरी० ॥ ४ ॥ ६४. सुमर मन समवसरन सुखदाई । अशरन शरन धनदकृंत प्रभुको ॥ टेक ॥ मानस्तंभ सरोवर सुंदर, विमल सलिलजुत खाई । पुष्पवाटिका तुंगकोट पुनि, नाट्यशाल मनभाई ॥ सुमर मन० ॥ १ ॥ उपवन जुगल विशाल वेदिका, धुजपंकति लहकाई । हाटक कोट कल्पतरुवन पुनि, द्वादश सभा वरनि नहिं जाई ॥ सुमर० ॥ २ ॥ तहँ त्रिपीठपर देव स्वयंभू, राजत श्रीजिनराई । जाहि पुरंदरजुत वृन्दारक-वृन्द सु वंदत आई | भागचन्द इमि ध्यावत ते जन, पावत जगठकुराई ॥ सुमर मन० ॥ ३ ॥ ६५. सोई है सांचा महादेव हमारा । जाके नाहीं रागरोष
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy