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________________ 1. = द्वितीयभाग. ३३ तुम भगवान जी | मैं चिर दुखी परचाहतें, तुम धर्म नियत न उर धरो || परदेवसेव करी बहुत, नहिं काज एक तहां सरो || ४ || अब भागचन्दउदय भयो, मैं शरन आयो तुम तने । इक दीजिये वरदान तुम जस, स्वपद दायक बुध भने || परमाहिं इष्ट-अनिष्ट-मति तजि, मगन निज गुनमें रहीं । दृग-ज्ञान-चर संपूर्ण पाऊं, भागचंद न पर चहाँ ॥ ५ ॥ ६१. राग दीपचन्दी | कीजिये कृपा मोह दीजिये स्वपद, मैं तो तेरो ही शरन दीनों हे नाथ जी ॥ टेक ॥ दूर करो यह मोह शत्रुको, फिरत सदा जो मेरे साथ जी ॥ कीजिये० ॥ १ ॥ तुमरे वचन कर्मगढ़-मोचन, संजीवन औषधी क्वाथ जी ॥ || कीजि० ॥ २ ॥ तुमरे चरन कमल बुध ध्यावत, नावत हैं पुनि निजमाथ जी ॥ कीजि० ॥ ३ ॥ भागचंद मैं दास तिहारो, ठाड़ो जोरों जुगल हाथ जी ॥ कीजि० ॥ ४ ॥ ६२. राग दीपचन्दी | निज कारज काहे न सारै रे, भूले प्रानी ॥ टेक ॥ परिग्रह भारथकी कहा नाहीं, आरत होत तिहारै रे ॥ निज० ॥ १ ॥ रोगी नर तेरी चपुको कहा, तिस दिन नाहीं जारै रे ॥ निज का० ॥ २ ॥ क्रूरकृतांत सिंह कहा जगमें, जीवनको न पछारे रे ॥ निज का० ॥ ३ ॥ करनविपय विप ३
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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