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________________ द्वितीयभाग. ३६. राग सोरठ। म्हांक घट जिनधुनि अब प्रगटी । जागृत दशा भई अब मेरी, सुप्त दशा विघटी । जगरचना दीसत अब मोको, जैसी रँहटघटी । म्हांक घट० ॥१॥ विनम तिमिर-हरन निज दृगकी, जैसी अँजनवटी । तातै स्वानुभूति प्रापतित परपरनति सव हटी ।। म्हांक घट० ॥२॥ ताक दिन जो अवगम चाह, सो तो शठ कपटी। ताते भागचन्द निशिवासर, इक ताहीको रटी।म्हांक घट०॥३॥ राग सोरठ। आव न भोगनमें तोहि गिलान ।। टेक।। तीरथनाथ भोगतजि दीन, तिनत मन भय आन। तू तिनतें कहुँ डरपत नाहीं, दीसत अति बलवान ॥ आवै न० ॥१॥ इन्द्रियतृप्ति काज तू भोग, विषय महा अघखान । सो जैसे घृतधारा जार, पात्रकग्वाल वुझान ॥ आवै न० ॥२॥ जे सुख तो तीछन दुखदाई, ज्यों मधुलिप्त-कृपान । ताते भागचन्द इनको तजि, आत्मस्वरूप पिछान ॥आवन०॥३॥ ३८. राग सोरठ। - स्वामीजी तुम गुन अपरंपार, चन्द्रोजवल अविकार ॥ टेक ॥ ज तुम गर्भमाहिं आये, तवै सव सुरगन मिलि आय रतन नगरीमै बरपाये, अमित अमोघ सुदार ॥ स्वामी
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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