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________________ 'जैनपदसंग्रह. १८ तिहारौ || स्वामी मोह० ॥ १ ॥ भव अटवीमें भटकत भटकत, अब मैं अति ही हारी । स्वामी मोह० ॥ २ ॥ भागचन्द स्वच्छन्द ज्ञानमय, सुख अनंत विस्तारौ ॥ स्वामी मोह० ॥ ३ ॥ ३४. राग सोरठ देशी । थांकी तो वानी में हो, निज स्वपरप्रकाशक ज्ञान ॥ टेक ॥ एकीभाव भये जड़ चेतन, तिनकी करत पिछान ॥ थांकी तो० ॥ १ ॥ सकल पदार्थ प्रकाशत जामें, मुकुर तुल्य अमलान ॥ थांकी तो० ॥२॥ जग चूड़ामनि शिव भये ते ही, तिन कीनों सरधान ॥ थांकी तो० ॥ ३ ॥ भागचंद बुधजन ताहीको, निशदिन करत बखान ॥ थांकी तो ० ॥४॥ ३५. राग सोरठ मल्हार में । गिरिवनवासी मुनिराज, मन वसिया झारें हो ॥ टेक ॥ कारनविन उपगारी जगके, तारन-तरन-जिहाज ॥ गिरिवन० ॥ १ ॥ जनम- जरामृत -गद-गंजनको, करत विवेक इलाज ॥ गिरिवन० ॥ २ ॥ एकाकी जिमि रहित केसरी, निरभय स्वगुन समाज || ३ || निर्भूपन निर्वसन निराकुल, सजि रत्नत्रय साज ॥ गिरिवन० ॥ ४ ॥ ध्यानाध्ययनमाहिं तत्पर नित, भागचन्द शिवकाज ॥ गिरिवन० ॥५॥
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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