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________________ १०० जैनपदसंग्रह । तीस काल अनंत यों दुख, सहे उपमाही नहीं । कबहूं लही वर आयु छिति-जल, पवन-पावकतरुतणी । तसु भेद किंचित् कहूं सो मुनि, कह्यो जो गौतमगणी ॥ २॥ पृथिवी दय भेद बखाना, मृदु माटी कठिन पखाना । मृदु दादशसहस बरसकी, पाहन वाईस सहसकी। पुनि सहस सात कही उदक त्रय, सहसवर्ष समीरकी । दिन तीन पावक दशसहस तरु, प्रमित नाश सुपीरकी ॥ विनघात सूच्छम देह: धारी, घातजुत गुरुतन लह्यो । तहँ खनन तापन जलन व्यंजन, छेद भेदन दुख सह्यो ॥३॥ शंखादि दुइंद्री पानी, थिति द्वादशवर्ष बखानी । यूकादि तिइंद्री हैं जे, वासर उनचास जियें ते॥ जीवै छमास अलीप्रमुख, व्यालीससहस उरगतनी । खगकी बहत्तरसहस नवपूर्वांग सरीसृपंकी भनी ॥ नर मत्स्य पूरवकोटकी थिति, करमभूमि बखानिये । जलचर विकल . १ पृथ्वी । २ पानी । ३ जूआंआदि । ४ भ्रमरआदि । ५ स पविशष ... ... .
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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