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________________ प्रथमभाग। जहाँ । सुख अनन्त अतिइन्द्रियमंडित, वीरज अचल अनंत तहाँ ॥ २॥ ऐसा पद चाहै तो भज निज, वारवार अव को उचरे । दौल मुख्यउपचार रनत्रय, जो सेवै तो काज सरै जकड़ी ११०. पभादि जिनेश्वर ध्याऊं, शारद अंवा चित लाऊं। देविधि-परिग्रह-परिहारी, गुरु नमहुँ स्वपरहितकारी ॥ हितकार तारक देव श्रुत गुरु, परख निजउर लाइये । दुखदाय कुपथविहाय शिवमुख,-दाय जिनवृप ध्याइये ॥ चिरतै कुमग पगि मोहठगकर, ठग्यो भैव-कानन पखो। व्यालीसद्रिकलख जोनिमें, जरमरनजामन-दवं जखो ॥ १ ॥ जब मोहरिपु दीन्हीं घुमरिया, तसुवश निगोदमें परिया। तहाँ खास एकके माही, अष्टादश मरन लहाहीं ॥ लहि मरन अन्तमुहूर्तमें, छयासठसहस शततीन ही। षट १ "जिन भी पाठ है । २ संसारख्पी वन । ३ चौरासीलाख योनि । ४ बद्धावस्था, मृत्यु, और जन्मरूपी अग्निमें जला।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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