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________________ जैनपदसंग्रहगाजै । वारी० ॥५॥ फिर हरिनारि सिंगार खामितन, जजे सुरा जस गाये । पूरवेली विधिकर पयान मुद,-ठान पिताघर लाये । मनिमय आंगनमें कनकासन, पै श्रीजिन पधराये । तांडव नृत्य कियो सुरनायक, शोभा सकल समाजै । वारी० ॥६॥ फिर हरि जगगुरुपितरतोष शान्तेशै घो जिन नामा। पुत्रजन्म उत्साह नगरमें, कियो भूप अभिरामा । साध सकल निजनिजनियोग सुर-असुर गये निजधामा । त्रिपदधारि जिनचारुचरनकी, दौलत करत सदा जै ।वारी०॥७॥ ४५. *. हे जिन ! तेरो सुजस उजागर, गावत हैं मुनिजन ज्ञानी । हे जिन ॥ टेक ॥ दुर्जयमोह महाभट जाने, निजवश कीने जगपानी । सो तुम ध्यानकृपान पानिगहि, ततछिन ताकी थिति ::१ इन्द्राणी । २ पूर्वकी । ३ जिन भगवानके पिताकी स्तुतीकसके । ४ शान्तिनाथनाम । ५ घोषणा करके । ६. तीर्थकरत्व, चक्रवर्तित्व और कामदेवत्व इन तीन पदोंके धारी। ..
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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