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________________ प्रथमभाग। दामनि लाजै । वारी हो०॥२॥ गोप गोप॑तिय जाय मायढिग, करी तास थुति सारी । सुखनिद्रा जननीको कर नमि, अंक लियो जगतारी । लै वसुमंगल द्रव्य दिशसुरींचलीं अग्रशुभकारी । हरखि हैरी चख सहस करी तव, जिनवर निरखनकाजै । वारी हो० ॥ ३॥ ता गजे. न्द्र प्रथम इन्द्रने, श्रीजिनेन्द्र पधराये । द्वितिय छत्र दिय तृतिय, तुरिय-हरि, मुदधरि चमर दुराये। शेषशक जयशब्द करत नभ, लंघ सुराचल छाये । पांडुशिला जिन थाप नची संचि, दुंदुभिकोटिक बाजै । वारी०॥ ४॥ पुन सुरेशने श्रीजिनेशकोजन्मन्हवन शुभ ठानो । हेमकुंभ सुरहाथहिं हाथन, क्षीरोदधिजल आनो । वदनउदरअवगाह एक चौ, वसुयोजन परमानो । सहसआठकर करि हरि जिनशिर, ढारत जयधुनि १ गुप्त रूपसे । २ इन्द्राणी । ३ गोदमें । ४ भगवान । ५ दिकन्यका देवियाँ। ६ इन्द्र। ७ ऐशान इन्द्र । ८ सानत्कुमार और माहेन्द्र । ९ वाकीके सव इन्द्र। १०. सुमेरु। ११ इन्द्राणी। .१२ सोनेके कलशोंके मुख एक योजन,उदर चारयोजन और-गहराई आठ योजन थी। . . . .
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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