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________________ १२६ जैनपदसंग्रह। न० ॥ टेक ॥ रोम रोम लखि हरप होत है, आनंद उर न समाय ॥ जिन० ॥१॥ शांतरूप शिवराह बतावै, आसन ध्यान उपाय ।। जिनः ॥२॥ ईद फ:निंद नारद विभौ •सव, दीसत है दुखदाय ॥ जिन ॥३॥ द्यानत पूजै ध्यावै गाचे, मन वच काय लगाय ॥ जिन०॥४॥ . / . V२५८। तारि लै मोहि शीतल खामी ॥ तारि० ॥ टेक ॥ शीतल वचन चंद चन्दन , भव-आताप-मिटावन नामी ॥ तारि० ॥१॥ त्रिभुवननायक सव सुखदायक, लोकालोकके अंतरजामी ॥ तारि० ॥२॥ द्यानत तुम जस कौन कहि सके, वंदत पाँय भये शिवगामी ॥ तारि० ॥३॥ ४२५९ । तारनकों जिनवानी ॥ तारन० ॥ टेक ॥ मिथ्या चूरै सम्यक पूरै, जनम-जरामृत हानी ॥ तारन० ॥१॥ जड़ता नाशै ज्ञान प्रकाशै, शिव-मारग-अगवानी। यानंत तीनों-लोक · व्यथाहर, परम-रसायन मानी । तारन० ॥२॥ . / २६०। होरी आई आज रंग भरी है। रंग भरी रस भरी रसौं (2)भरी है ॥ होरी० ॥ टेक ॥ चेतन पिय आये
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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