SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थभाग । १२१ ध्यान मुनिंद ॥ मूरति० ॥ २ ॥ द्यानत राजुल-प्राननप्यारे, ज्ञान-सुधाकर-इंद ।। मूरति० ॥ ३॥ २४२। अव मोहि तारि लै नेमिकुमार ॥ अव० ॥ टेक ॥ खग मृग जीवन वंध छुड़ाये, मैं दुखिया निरधार ।। अब० ॥१॥ मात तात तुम नाथ साथ दी, और कौन रसवार । धानत दीनदयाल दया करि, जगते लेहु निकार ॥ अब० ॥२॥ २४३। अब मोहि तारि लै नेमिकुमार ॥ अव० ॥ टेक ।। चहुगत चौरासी लख जौनी, दुखको वार न पार ।। अब० ॥ १॥ करम रोग तुम वैद अकारनं, औषध वैन-उचार । धानत तुम पद-यंत्र धारधर, भव-ग्रीषमतप-हार ॥ अव० ॥२॥ २४४ । राग-परज। नेमि ! मोहि आरति तेरी हो ॥ नेमि० ॥ टेक ।। पशू छुड़ाये हम दुख पाये, रीत अनेरी हो । नेमि० ॥१॥ जो जानत है जोग धरेंगे, मैं क्यों घेरी हो। द्यानतं हम हू संग लीजिये, विनती मेरी हो ॥ नेमि० ॥२॥ १ अनोखी । २ थे। :
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy