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________________ जैनपदसंग्रह | ८० ॥ भजि० ॥ ६ ॥ राग दोष मंद मोह भय, जिन तिला टारी । लोक अलोक त्रिकालकी, परजाय निहारी ॥ भजि० ॥ ७ ॥ ताको मन वच कायसों, वन्दना हमारी । द्यानत ऐसे खामिकी, जइये बलिहारी ॥ भजि० ॥ ८ ॥ १५४ । प्राणी लाल ! छांड़ो मन चपलाई || प्राणी० ॥ टेक ॥ देखो तन्दुलमच्छ जु मनतै, लहै नरक दुखदाई ॥ ॥ प्राणी० ॥ १ ॥ धारै मौन दया जिनपूजा, काया वहुत तपाई । मनको शल्य गयो नहिं जब लों, करनी सकल गंवाई ॥ प्राणी० ॥ २ ॥ बाहूवल मुनि ज्ञान न उपज्यो, मनकी खुटक न जाई । सुनतें मान तज्यो मनको तब, केवलजोति जगाई ॥ प्राणी० ॥ ३ ॥ प्रसनचंद रिषि नरक जु जाते, मन फेरत शिव पाई । तनतें वचन वचनतै मनको, पाप को अधिकाई ॥ प्राणी० ॥ ४ ॥ देहिं दान गहि शील फिरें बन, परनिन्दा न सुहाई । वेद पढ़ें निरग्रंथ रहें जिय, ध्यान विना न बड़ाई ॥ प्राणी० ॥ ५ ॥ त्याग फरस रस गंध वरण सुर मन इनसों लौ लाई । घर ही कोस पचास भ्रमत ज्यों तेलीको वृष भाई ॥ प्राणी० || ६ || मन कारण है सब कारजको, विकलप बंध बढ़ाई । निरविकलप मन मोक्ष करत है, सूधी बात बताई ॥ प्राणी० ॥ ७ ॥ द्यानत १ महामच्छके कर्णमें रहनेवाला मच्छ । २ शल्य खटक । ३ वैल
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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