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________________ चतुर्थभाग। ७९ ॥४॥ तन धन लाज कुटुंवके कारन, मूढ करत है। पाप । इन ठगियोंसे ठगायकै हो, पावै बहु दुख आप ॥चेतन०॥५॥ जिनको तू अपने कहै हो, सो तो तेरे नाहिं । के तो तू इनकौं तजै हो, के ये तुझे तज जाहि ॥ चेतन० ॥६॥ पलक एककी सुध नही हो, सिरपर गाजै काल । तू निचिन्त क्यों वावरे हो, छांडि दे सब भ्रमजाल । चेतन० ॥७॥ भजि भगवन्त महन्तको हो, जीवन-प्राणअधार । जो सुख चाहै आपको हो, द्यानत कह पुकार ॥ चेतन० ॥८॥ १५३ । राग-विलावल । __ भजि मन प्रभु श्रीनेमिको, तजी राजुल नारी ॥ टेक ॥ जाके दरसन देखतें, भाजै दुख भारी॥ भजि. ॥१॥ ज्ञान भयो जिनदेवको, इन्द्र अवधि विचारी। धनपतिने समोसरनकी, कीनी विधि सारी ॥ भजि०॥ ॥२॥तीन कोट चहुं थंभश्री, देखें दुखहारी। द्वादश कोठे वीचमें, वेदी विस्तारी ॥ भजि० ॥३॥ तामैं सोहैं नेमिजी, छयालिस गुणधारी । जाकी पूजा इन्द्रने, करी अष्टप्रकारी॥ भजि०॥४॥ सकल देव नर जिहिं भजें, वानी उचारी। जाको जस जम्पत मिले, सम्पत अविकारी ॥ भजि०॥५॥जाकी वानी सुनि भये, केवल दुतिकारी। गनधर मुनि श्रावक सुधी, ममताधि डारी १ गानेसे। .
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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