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________________ चतुर्थभाग 1.. ४३ नय निहचै विवहार - साधिकै, दोऊ चित्त, रिझावे !! " भाई ० C ॥ २ ॥ कोई कहै जीव छिनभंगुर, कोई, नित्य वखाने । परजय दरवित नय परमानै, दोऊ समता आनै । भाई० ॥ ३ ॥ कोई कहै उदय है सोई, कोई उद्यम बोलै । द्यानत स्यादवाद सुतुलामें, दोनों वस्तै तोलै ॥ भाई ० ॥ ४ ॥ · ८२ | राग - आसावरी । भाई ! कौन धरम: हम पालै ॥ टेक ॥ एक कहैं जिहि कुलमें आये, ठाकुरको कुल गा लें || भाई० ॥ १ ॥ शिवमत बौध सु वेद नयायक, मीमांसक अरु जैना । आप सराहैं आगम गाहैं, काक़ी सरधा ऐना ॥ भाई ० ॥ २ ॥ परमेसुरपै हो आया हो, ताकी बात सुनी जै । पूछें बहुत न बोलें कोई, बड़ी फिकर क्या कीजै ॥ भाई ० || ३ || जिन सर्व मतके मत संचय करि, मारंग एक बताया । द्यानत सो गुरु पूरा पाया, भाग हमारा आया || भाई ० ॥ ४ ॥ · " ८३ । राग़- गौरी । हमारी कारज कैसें होय ॥ टेक ॥ कारण पंच मुकति मारगके, तिनमेंके हैं दोय || हमारो० ॥ १ ॥ हीन संघनन लघु आयूपा, अल्प मनीषा जोय । कचे १. उत्तम तराजू । २ वस्तुएँ । ३ किसकी । ४ बुद्धि ।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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