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________________ १२. जैनपदसंग्रह | बतलायो रे । ॥ अजित० ॥ २ ॥ करुनासागर गुनरतनांगर, जोतिउजागर भावो रे । त्रिभुवननायक भवभयघायक, आनंददायक गावो रे || अजित० ॥ ३ ॥ परमनिरंजन पातकभंजन, भविरंजन ठहरावो रे । घानत जैसा साहिब सेवो, तैसी पदवी पाचो रे ॥ अजित० ॥ ४ ॥ ie J ६८० । राग - आसावरी । · 15 1 अब हम अमर भये न मरेंगे ॥ टेक ॥ तन-कारन मिथ्यात दियो तज, क्यों करि देह धरेंगे ॥ अव० ॥ १ ॥ उपजै मरे कालतै प्रानी, तातैं काल हरेंगे । राग दोष जग बंध करत हैं, इनको नाश करेंगे ॥ अव० ॥ २ ॥ देह विनाशी मैं अविनाशी, भेदज्ञान पकरेंगे । नासी जासी हम थिरवासी, चोखे हो निखरेंगे || अब० ॥ ३ ॥ मरे अनन्त वार विन समझें, अब सब दुख विसरेंगे । द्यान निपट निकट दो अक्षर, विन सुमरें सुमरेंगे ॥ अव० ॥ ४ ॥ :. ८. ८१ । राग आसावरी ।.. ... भाई ! ज्ञानी. सोई कहिये ॥ टेक ॥ करम उदय सुख दुख भोगेतें, राग विरोध न लहिये || भाई ० ॥ १ ॥ कोऊ ज्ञान क्रियातें कोऊ, शिवमारग बतलावे । १. रत्नोंकी खानि । २ शुद्धचिदानंद | ३. "आत्मा" ।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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