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जैनपदसंग्रह |
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देखि त्रिपति नहिँ सुरपति, नैन हजार बनावै ॥ दरसन ० ॥ १ ॥ समोसरनमें निरखै सचिपति, जीभ सहस गुन गावै । कोड़ कामको रूप छिपत है, तेरो दरस मुंहावे ॥ दरसन० ॥ २ ॥ आँख लगे अंतर है तो भी, आनँद उर न समावै । ना जानों कितनों सुख हरिको, जो नहिं पलक लगावै ॥ दरसन० ॥ ३ ॥ पाप नासकी कौन बात है, धानत सम्यक पावै । आसन ध्यान अनूपम खामी, देखें ही वन आवै ॥ दरसन० ॥ ४ ॥ ६८ ।
री ! मेरे घट ज्ञान घनागम छायो || री० ॥ टेक ॥ शुद्ध भाव बादल मिल आये, सूरज मोह छिपायो ॥ री० ॥ १ ॥ अनहदं घोर घोर गरजत है, भ्रम आताप मिटायो । समता चपला चमकनि लागी, अनुभौ-सुख झर लायो ॥ ० ॥ २ ॥ सत्ता भूमि चीज समकितको, शिवपद खेत उपायो । उद्धत (१) भाव सरोवर दीसै, मोर सुमन हरपायो ॥ ० ॥ ३ ॥ भव- प्रदेश बहु दिन पी, चेतन पिय घर आयो । द्यानत सुमति कहै सखि - यनसों, यह पावस मोहि भायो ॥ ० ॥ ४ ॥
६९ ।
हो खामी ! जगत जलधितै तारो ॥ हों० ॥ टेक ॥ १ इन्द्र । २ इन्द्रको ।