SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थभाग। २७ ५०। धिक ! धिक! जीवन समकित विना ॥ टेक ॥ दान शील तप प्रत श्रुतपूजा, आतम हेत न एक गिना ॥धिक० ॥१॥ ज्या विनु कंन्त कामिनी शोभा, अंबुज विनु सरवर ज्यों सुना। जैसे विना एकड़े विन्दी, सों समकित विन सरच गुना ॥ धिक० ॥२॥ जैसे भूप विना सब सेना, नीव विना मंदिर चुनना । जैसे चन्द विहूनी रजनी, इन्हें आदि जानो निपुना ॥धिक० ॥३॥ देव जिनेन्द्र, साधु गुरु, करुना, धर्मराग व्योहार भना । निहचे देव धरम गुरु आतम, घानत गहि मन वचन तना ॥ धिक०॥४॥ ५१ । गुजरातीभापा-गीत। जीवा ! 0 कहिये तेनैं भाई ॥ टेक ॥ पोतानूं रूप अनृप तीन, शामा विपयी थाई ॥ जीवा० ॥१॥ इन्द्रीना विपय विपथकी मौटा, ज्ञाननू अम्रत गाई। अमृत छोड़ीने विपय विप पीधा, साता तो नथी पोई ॥ जीवा० ॥२॥ नरक निगोदना दुख सह आयो, बळी तिहन मग धाई। एहवी वात सैंडी न छै तमनैं, १ पति, भतार । २ कमल । ३ एक (१) का अंक । ४ रहित । ५ रात्रि । ६ क्या । ७ तुझे । ८ अपना । ९ तज करके । १०किसलिये । ११ हुआ । १२ नहीं प्राप्त हुई । १३ पुनः । १४ उसी। १५ ऐसी । १६ अच्छी।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy