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________________ २४ जैनपदसंग्रह | छुति है अपरंपारा || देख्या ० ||२|| जिनके वचन सुनें जिन भविजन, तजि गृह मुनिवरको व्रत धारा । जाको जस इन्द्रादिक गावैं, पावैं सुख नासैं दुख भारा || देख्या० ||३|| जाके केवलज्ञान विराजत, लोकालोक प्रकाशन हारा । चरन गहेकी लाज निवाहो, प्रभुजी धानत भगत तुम्हारा ॥ देख्या ॥ ४ ॥ ४५ । आतमरूप अनूपम है, घटमाहिं विराजै हो ॥ टेक ॥ जाके सुमरन जापसों, भव भव दुख भाजै हो ॥ आतम० ॥ १ ॥ केवल दरसन ज्ञानमैं, थिरतापद छाजै हो । उपमाको तिहुँ लोकमें, कोऊ वस्तु न राजै हो ॥ आतमः ॥ २ ॥ सहै परीपह भार जो, जु महात्रत साजै हो । ज्ञान विना शिव ना लहै, बहुकर्म उपांजै हो || आम० || ३ || तिहुँ लोक तिहुँ कालमें, नहिं और इलाजै हो । द्यानत ताकों जानिये, निज खारथकाजै हो ॥ आतम● ॥ ४ ॥ ४६ । : नहिं ऐसो जनम वारंवार ॥ टेक ॥ कठिन कठिन लह्यो मनुष भव विषय भजि संति हार || नहिं० ॥१॥ पाय चिन्तामन रतन शठ, छिपत उदधिमँझार । अंध 3 १ उपार्जित करै, कमावै । २ नहीं । ३ फैकता है ।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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