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________________ चतुर्थभाग । १५ । राग-मल्हार। जगतमें सम्यक उत्तम भाई ॥ टेक ॥ सम्यकसहित प्रधान नरकमें, धिक शट सुरगति पाई ॥ जगत. ॥१॥ श्रावकत्रत मुनित्रत जे पालें, ममता बुधि अधिकाई । तिनत अधिक असंजमचारी, जिन आतम लव लाई ॥ जगतः ॥२॥ पंच-परावर्तन 6 कीने, बहुत बार दुखदाई । लख चौरासि स्वांग धरि नाच्यो, ज्ञानकला नहिं आई ॥ जगत० ॥३॥ सम्यक विन तिहुँ जग दुखदाई, जहँ भावं तहँ जाई । धानत सस्यक आतम अनुभव, सदगुरु सीख बताई।जगत०॥॥ १६ । राग-गौड़ी। भाई ! अब मैं ऐसा जाना ॥ टेक । पुदगल दरव अन भिन्न है, मेरा चेतन बाना ॥ भाई० ॥१॥ कलप अनन्त सहत दुख बीते, दुखको मुख कर माना। मुख दुख दोऊ कर्म अवस्था, मैं कर्मनतै आना भाई. ॥२॥ जहाँ भोर था तहाँ भई निशि, निशिकी ठौर चिहाना । सूल मिटी निजपद पहिचाना, परमानन्दनिधाना ॥ भाई० ॥३॥ गूंगे का गुड़ खाँय कहें किमि, यद्यपि स्वाद पिछाना । धानत जिन देख्या ते जाने, मंडक हंस पखाना ॥ भाई० ॥४॥ १ कल्पकाल । २ अन्य, निराला । ३ कहावत । मंडक और ईसकी लोकोक्ति।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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