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________________ जैनपदसंग्रह निरग्रंथ त्रिकाल । मार्यो काम खवीसको, खामी परम दयाल ॥ ते गुरु०॥४॥ पंच महाव्रत आदरें, पांचों सुमति समेत । तीन गुपति पालैं सदा, अजर अमर पद हेत ॥ ते गुरु०॥५ धर्म धरै दशलक्षणी, भावें भावना सार । सहैं परीसह बीस दै, चारित-रतन-भँडार ॥ ते गुरु० ॥६॥जेठ तपै रवि ओकरो, सूखै सरवरनीर। शैल-शिखर मुनि तप तपैं, दोझै नगन शरीर। ते गुरु०॥७॥पावस रैन डरावनी, वरसै जलधर-धार । तरुतल निवसैं साहसी. वाजै झंझावार ।। ते गुरु०॥८॥शीत पड़े कपि-मद गलै, दाहै सब वनराय । ताल तरंगनिके तटै, ठाड़ें ध्यान लगाय ॥ ते गुरु० ॥९॥ इहि विधि दुद्धर तप तपैं, तीनों कालमँझार लागे सहज सरूपमें, तनसों ममत निवार ॥ ते गुरु० ॥१०॥ पूरव भोग न चिंत३, आगम वांछा नाहि । चहुँगतिके दुखसों डरें, सुरति लगी शिव १ तेजीसे । २ जलावें । ३ चलती है। ४ बरसाती हवाको शंशा कहते हैं। -
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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