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________________ तृतीयभाग। नायकके जीतें, जै है भाजि सहज सब लसकरि॥ सुनि० ॥ २ ॥ इंद्रियलीन जनम सब खोयो, चाकी चल्यो जात है स्वस करि । भूधर सीख मान सतगुरुकी, इनसों प्रीति तोरि अब वश करि ।। सुनि० ॥ ३॥ .. . ५३. राग गौरी। देखो भाई ! आतमदेव विराजै ॥ टेक ॥ इसही हूँठ हाथ देवलमें, केवलरूपी राजै॥देखो० ॥१॥ अमल उदास जोतिमय जाकी, मुद्रा मंजुल छाजै । मुनिजनपूज अचल अविनाशी, गुण वरनत बुधि लाजै॥ देखो०॥२॥ परसंजोग समल प्रतिभासत, निज गुण मूल न त्याजै । जैसे फटिक पखानं हेतसों, श्याम अरुन दुति साजै ॥ देखो० ॥ ३॥ 'सोऽहं पद. समतासों ध्यावत, घटहीमें प्रभु पाजे । भूधर निकट निवास जासुको, गुरु विन भरम न भाजै ॥ देखो० ॥४॥ १ लश्कर-सैना. २ साढ़ेतीन हाथके शरीररूपी मंदिरमें. .
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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