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________________ जैनपदसागर प्रथमभाग ४७. राग सोरठ। · खामीजी तुम गुन अपरंपार, चंद्रोबल अवि कार । स्वामी जी० ॥ टेक ।। जवै तुम गर्भमाहि आये, तवै सब सुरगन मिल धाये, रतन नग. रीमै वरसाये, अमित अमोध सु ढार ॥ स्वामी जी०॥१॥जनम प्रभु तुमने जब लीना, न्हवन मंदरपै हरि कीना, भक्ति कर सची सहित: भीना, बोला जयजयकार ॥ खामीजी० ॥ २॥ जगत जव छनभंगुर जाना, लियो तव नगनवृती बाना, स्तवन लोकांतिकसुर ठानात्याग राजको भार ॥ स्वामीजी० ॥ ३ ॥ घातिया प्रकति जवै नासी, चराचर वस्तु सबै भासी, धर्मकी वृष्टि करी खासी, केवलज्ञान भंडार ॥ स्वामीजी० ॥ ४॥ अघाती प्रकृति .. सुविघटाई; मुक्तिकांता तब ही पाई, निराः कुल आनंद असंहाई, तीनलोकसरदार । स्वामीजी०॥५॥ पार गनधर हू नहिं पावै, कहां लगि भागचंद गावे, तुमारे चरनांबुज.
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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