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________________ ५७ हजूरीपद - संग्रह | निगोदमें, एक उसासमझारी । जनममरन नव दुगुन विथाकी, बात न जात उचारी ॥ सुधि० ॥ ३ ॥ भू जल ज्वलन पवन प्रत्येक तरु, विकलः त्रयतनधारी | पंचेंद्री पशुनारकनरसुर, विपति भरी भयकारी ॥ सुधि० ॥ ४ || मोहमहारिपु नेक न सुखमें, होन दई सुधि थारी । सो दुठ मंद भयो भागनतें, पाये तुम जगतारी ॥ सुधि० ॥ ५ ॥ यदपि विरागि तदपि तुम शिवमग, सहज प्रगट करतारी | न्यों रविकिरन सहज मगदर्शक, यह निमित्त अनिवारी ॥ सुधि० ॥ ६ ॥ नाग छाग गज बाघ भीलदुठ, तारे अधम उधारी । सीस नवाय पुकारत अब तो दौल अधमकी वारी ॥ ॥ सुधि० ॥७॥ ( ४१ ) जाऊं कहां तज शरन तिहारे, जाऊं ॥ टेक ॥ चूक अनादितणी या हमरी, माफ करो करुणा गुणधारे ॥ जाऊं० ॥ १ ॥ डूबत हों भवसागर में अब, तुम विन को मुहि बार निकारे । तुम सम १ अठरह । २ पृथिवीकाय । ३ अग्निकाय
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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