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________________ ५६. जैनपदसागर प्रथमभागदुखदंदा टेका। मातु मरुदेवी प्यारे, पिता नाभिके दुलारे, वंश तो इक्ष्वाक जैसें नम वीच चंदा. ॥ जय० ॥१॥ कनक वरन तन, मोहत भविक जन, रवि शशि कोटि लाजै, लाजै मकरंदा॥ ॥ जय० ॥२॥दोष तो अठारा नासे, गुन छियालीस भासे, अष्टकमकाट स्वामी, भये निरफंदा ॥ जय० ॥३॥ चार ज्ञानधारी गनी, पार नहिं पावै मुनी. दौलत नमत सुख चाहत अमंदा ॥ ॥ जय० ॥४॥ सुधि लीज्योजीम्हारी.मोहि भवदुखदुखियाजान के,सुधि लीज्योजीम्हारी॥टेकातीनलोक खामी नामी तुम, त्रिभुवनकेदुखहारी। गनधरादितुव सरन लई लखि, लीनी सरन तिहारी ॥ सुधि ॥१॥जो विधि अरीकरी हमरी गति,सोतुमजानत सारी! यादकिये दुख होत हिये ज्यों, लागत कोट कसरी ॥ सुधिः ॥२॥ लन्धिअपर्याप्त र कामदेवें । ..
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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