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________________ १ जैनपदसागर प्रथमभागशिवरानी है कृतकृत्य तदपि तुम शिवमग, उपदेशक-अगवानी । प्रभु०॥५॥ भई कृपा तुमरी तुममें यह, भक्ति सु मुक्तिनिशानी। है दयाल अब देह दौलको, जो तुमने कृति ठानी ॥ प्रभु०॥६॥ .. . (३७) 'तुम सुनियो श्रीजिनराजा! अरज इक मेरीजी ॥ तुम० ॥ टेक ।। तुम विनहेत-जगतउपकारी वसुकर्मन मोहि कियो दुखारी, ज्ञानादिक निधि हरी हमारी, द्यावो सो ममकेरीजी॥ तुम० ॥१॥ में जिन! भूलि तुमहिं सँगै लाग्यो,तिनकृत करन विषयरसपाग्यो, तातै जन्मजरादव-दाग्यो करि समता मम नेरीजी ॥ तुम०॥ ॥वे अनेक प्रभु मैं जु अकेला, चहुंगतिविपतिमाहि मोहि पेला, भाग जगे तुमसे भयो भेला, तुम होन्यायनिवेरी जी ॥ तुम०॥३॥ तुम दयाल बेहाल, इमारो, जगतपाल निज बिरद सँभारो, ढील . १ कोंके संग। -
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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