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________________ AAD - हजूरी पद-संग्रह।..: ५३ 'मोरी॥और ॥२॥तुम तज तिन्हें भजे शठ जो सो, दाख न चाखत.खात निमोरी। हे जगतार! उधार दौलको, निकट विकट-भव-जलधि हिलोरी । और०॥३॥ (३६) प्रभु थारी आज महिमा जानी, प्रभुथारी॥ ॥ टेक ॥ अवलों मोहमहामद पिय मैं, तुमरी सुध विसरानी । भागजोगतुम शांति छवी लखि जडतानींद बिलानी ॥ प्रभु०॥१॥जग-विजयी दुखदाय रागरुष, तुम तिनकी थिति भानी। शांतिसुधासागर गुनागर,परम विराग विज्ञानी ॥ प्रभु०॥३॥ समवसरन अतिशय कमलाजुत, पै निरग्रंथ निदानी। कोह-विना दुठमोहविदारक; त्रिभुवनपूज्य अमानी॥प्रभु०॥३॥ एकखरूप सकलज्ञेयाकृतं, जगउदास जगज्ञानी। शत्रुमित्र सवमैं तुम सम हो, जो दुखसुखफलथानी ॥ प्रभु०॥४॥ परम ब्रह्मचारी है प्यारी, तुम हेरी १ भवसमुद्रकी लहरें। - -
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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