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________________ जैनपदसागर प्रथमभाग हरहु वेदनाफेद दौलको, कतर करम-जंजीर ॥ हमारी० ॥ ४ ॥ 1 ( ११ ) सब मिलि देखो हेली म्हारी है, त्रिशलाबाल वदन रसाल ॥ सव० ॥ टेक ॥ आये जुत सम वसरन कृपाल, विचरत अभय व्यालमराल | 'फलित भई सकल तरुमाल | सब मिल० ॥ १ ॥ नैन न हालै भृकुटी न चाले, वैन विदारै विभ्रम "जाल । छवि लख होत संत निहाल । सब मिल| " ॥ २ ॥ वंदन काज साज समाज, संगलिये वजन पुरजन ब्राज, श्रेणिक चलत है नरपाल ॥ सब मिल० ॥३॥ यों कहि मोद जुत पुरवाल लखन चाली चरम जिनपाल, दौलत नमत कर घर भाल || सब मिल० ॥ ४ ॥ . ( १२ ) अरि-र-रईसि हनन प्रभु अरहन, जैवंतो , जगमें | देव अदेव सेवकर जाकी, घरहिं मौलि १। मोह । २. ज्ञानावरण दर्शनावरणकर्म । ३ अंतराय |
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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