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________________ --.:., हजुरी पद संग्रह | 饌 खत हैं संता । जाकी धुनि सुनि मुनि निजगुन सुन, परंगैर उगलंता ॥ भविन० ॥ ३ ॥ दोल तौल विन जस तस वरमत, सुरगुरु अकुलंता । नामाक्षर सुन कान खानसे रॉक नाकगता ॥ भविन० ॥ ४ ॥ . (१०.) | हमारी वीर हरो भव पीर | हमारी० ॥ टेक ॥ मैं दुख पतित दयामृतसर : तुम, लखि आयो तुम तीर । तुम परमेश मोखमगदर्शक, मोहद'वानलनीरं । हमारी० ॥ १ ॥ तुम विन हेत नम्र.त उपकारी, शुद्ध चिदानंद धीर । गनपतिज्ञानसमुद्र न लंघे, तुमगुनसिंधु गँहीर | हमारी ● ॥ ॥ २ ॥ याद नहीं मैं विपत सही जो, घर घर अमित शरीर । तुम-गुन: चिंतत नशत दुःख भय ज्यों घन चलतः समीर | हमारी० ॥ ३ ॥ कोटिंबारकी अरज यही है, मैं दुख सहू अंधीर । ! १ अपने गुणोंका मनन करके । २ पररागरूपीं विपं । ३ अपरिर्मित - 8 वृहस्पति । ५. . रंक - नाचीज । ६. स्वर्ग गया । ७ बहुत ऊंडा । "
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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