SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८ जैन पदसागर प्रथमभाग कर शिवमारंग, भविं जीवन लखि पाया है ॥ जिनमुख० ॥ ३ ॥ भ्रष्ट कुजीव उलूक पशू सम, तिनने नाहिं लखाया है । धन्य दिनेश 'जिनेश्वर' आनन, जिंहप्रकाश वृप पाया है। जिनमुख० ॥ ४ ॥ • ( २२ ) .. श्री अरहत छवि लखि हिरदै आनंद अनूपम छाया है श्रीअरहत० ॥ टेक ॥ वीतराग मुद्रा हितकारी, आसन पद्म लगाया है । दृष्टिनासिका अंग्रेधार मनु, ध्यान महान बढाया है । श्रीअर: हत० ॥ १ ॥ रूप सुधाधर अंजुलि भरभर, पीवत अति सुख पाया है । तारन तरन जगत - हित कारी, विरद शचीपति गाया है । श्रीअरहत० ॥ २ ॥ तुम मुखचंद्रनयन के मारग, हिरदैमांहि समाया है । भ्रमतम दुख आताप नस्यो सव, सुखसागर बढि आया है । श्रीअरहत० ॥ ३ ॥ प्रगटी उर संतोष चंद्रिका, निजखरूप दर . शाया है । धन्य धन्य तुम छबी 'जिनेश्वर" ·
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy