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________________ १४ जैन पदसागर प्रथमभाग जिनवानी, तप संजम उपजावो । धरि सरधान देवगुरु आगम, सप्ततत्त्व रुचि लावो ॥ भोर० ॥ || २ || दुःखित जन की दया ल्याय उर, दान चारविध द्यावो । रागरोष तजि भजि जिनपदको, बुधजन शिवपद पावो || भोर० ॥ ३ ॥ ( १७ ) भैरों । किंकर अरज करत जिनसाहिब, मेरी ओर निहारो ॥ किंकर० ॥टेक॥ पतित उधारक दीन दयानिधि, सुन्यो तोहि उपगारो । मेरे औगुन पैंमति जावो, अपनो सुजस विचारो ॥ किंकर ० ॥ १ ॥ अब ज्ञानी दीसत हैं तिनमें, पक्षपात उर झारो । नाहीं मिलत महाव्रतधारी, कैसें है नि स्तारो ॥ किंकर० ॥२॥ छबी रावरी नैनन निरखी, आगम सुन्यो तिहारो । जात नहीं भ्रम क्यों अब मेरो, या दूषनको टारो किंकर० ॥ ३ ॥ कोटि बातकी बात कहत हों, योही, मतलव म्हारो । जोलों भव तोलों बुधजनको, दीजे सरनसहारो | किंकर० ॥ ४ ॥ ·
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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