SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन पदसागर प्रथमभाग सम समाधिकर, दौल भये तुमरे अब चेरे। 1 जवदा० ॥ ७ ॥ (6) पद्मासन पद्मपद पद्मा - मुक्तिसैद्म-दरसावन हैं कलिमलगंजन मनअलिरंजन, मुनिजनसरन सुपावन है । पद्म सझ ० ॥ टेक ॥ जाकी जन्मपुरी कुशंबिका सुरनरनागरमावन है । जास जन्मदिन पूरब पट- नवमास रतन बरसावन है । पद्मासझ ॥ १ ॥ जा तप-थान पपोसा गिरि सो आत्मध्यान - थिर थावन हैं । केवल जोत उदोत भई सो; मिथ्या - तिमिर नसावन है । पद्मास० ॥ २ ॥ जाको शासन पंचानन सो कुमति- मतंगनशावन है । रागविना सेवकजनतारक, पै तसु तुषरुष भाव न है । पद्मासन ॥ ३ ॥ जाकी महिमाके वरननसों, सुरगुरुबुद्धिथकावन है । दोल - १ लक्ष्मी घर । २ पद्मप्रभके चरनकमल । ३ मुक्तिरूपी लक्ष्मीका स्थान । ४ पपोसा नामका पर्वत । उपदेश रूपी सिंह । ६: कुमतिरूपी हस्तीको नाश करनेवाला है । ७ रागद्वेष । ८ बृहस्पतिकी बुद्धि मी थक जाती है।
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy