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________________ १८६ जैनपदसागर प्रथमभाग - कनकासन, पै श्रीजिन पधराये | तांडवनृत्य कियो सुरनायक, शोभा सकल समाजै ॥ वारी हो० ॥ ६ ॥ फिर हरि जगगुरु-पितैरितोष. शांतेश घोप जिननामा | पुत्र जन्म उत्साह नगरमैं, कियो भूप अभिराभा ॥ साध सकल निजनिज नियोग सुर, असुर गये निज धामा । त्रिपद धारि जिन चारु चरनकी, दौलत करत सदा जै ॥ वारी हो० ॥ ७ ॥ ३ | बधाई - पार्श्वनाथ भगवानकी । बामाघर वजत वधाई, चलि देखरी माई ॥ टेक ॥ सुगुनरास जग आस भरन तिन, जने पार्श्व जिनराई । श्री ही धृति कीरति चुधि लछमी, हर्षित अंग न माई ॥ चलि देखरी० ॥१॥ वरन वरन मनि चूर सची सव, पूरत चौक सुहाई । ११ पुरुषका नृत्य, स्वयं इंद्रने किया । २ जगतके गुरु भगवानके पिताको प्रसन्न करके ३ शांतिनाथ नामकी । ४ घोषणा करके । . ५ मनोहर उत्कृष्ट | ६ अपने अपने स्थान । ७ तीर्थकरपद, चक्रबर्त्तिपद और कामदेवपदंके धारक । ८ भगवानके उत्तम मनोहर चरनोंकी, 1.
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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