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________________ : : 'अधाई संग्रह १४५ ता.गजेंद्रपै प्रथम इंद्रने श्रीजिनेंद्र पधराये । द्वितिय छत्र घरि तृतिय तुरिय हरि, मुद धरि चमर दुराये ॥ शेष शक जयं शब्द करत नभ, लंधिसुराल छाये। पांडुशिला जिनथापि नची सचि, दुंदुभि कोटिंक बाजै ॥ वारी होका ४ ॥ पुनि सुरेशने श्रीजिनेशको, जन्मन्हवन शुभ ठान्यो। हेमकुंभ सुर हाथहि हाथन, क्षीरोदधि जल आन्यो॥ वदन उदर अवगाह एक चौ. वसुयोजन परमान्यो। सहसआठ कर करि हरि जिनशिर, ढारत जय धुनि गाजै ॥ वारी हो। ॥५॥ फिर हरिनारि सिंगार स्वामितन, जजे सुराजस गाये। पूरबली विधि करि पयान मुद ठान पिताधेर लाये ॥ मनिमय आंगनमैं १ऐसान इन्द्र । २ सनत्कुमारं । ३ माहेंद्र इन्द्र । ४ वाकीके सब इंद्र । ५. सुमेरुपर्वतपर | ६. इन्द्राणी | ७ सोनेके कलसोंका मुख चार कोशंका चौडा, पेट सोलह कोशका चौडा, और झंडा कवीस कोश था। - ऐसे एक हजार आठ कत्रशोंकेलिये इंद्रने एक हज़ार. आठ हाथ बनाकर ! इन्द्राणीने १० पहिलेकी तरह हर्षके साथ ऐरावत हाती पर विठाकर । ११ पिताके घर लाये.. - ma
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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