SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६० जैनपदसागर प्रथमभाग पावें शिवसुख दुःख नशाहीं ॥ घनि ते० ॥४॥ ( २० ) धनि धनि ते मुनि गिरिवनवासी ॥ धनिधनि० ॥ टेक ॥ मारंमार जगजर जार ते, द्वादशत्रत तप अभ्यासी ॥ धनि धनि० ॥ १ ॥ कौड़ीलाल · पास नहिं जा कै, जिन छेदी आशापासी । आतम आतम पर पर जानै, द्वादश तीन प्रकृति नासी ॥ धनि धनि० || २ || जादुख देख दुखी सव जग है, सो दुख लखि सुख है तासी । जाकों सब जग सुख मानत हैं, सो सुख जान्यो दुखरासी ॥ धनि धनि० ॥ ३ ॥ वाहिज भेष कहत अंतर गुण, सत्यमधुरहितमितभाषी । द्यानत ते शिवपंथ-पथिक हैं, पांवपरत पातक जासी ॥ धनि धनि० ॥ ४ ॥ २१ । भाई धनि मुनि ध्यान लगायक खरे हैं | भाई १ कामदेवकूं मारकर । २ जगतके जालकूं जलाकर । ३ रतन | ४ आशारूपी फांसी । ५ मोक्षपंथके रस्तागीर हैं ।
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy