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________________ 'गुरुस्तुतिपद- संग्रह। १४७ मुद्राजुत सुंदर, सदन विजन गिरिकोरनै । तृनकंचन - अरिस्वजन गिनत सम, निंदन और निहोरने ॥ धनि० ॥ २ ॥ भवसुखचाह सकल तजि वल सजि, करत द्विविध तप घोरनै । परम विरागभाव - पेवितैं नित, चूरत कर्मकठोरने ॥ धनि० || ३ || छीन शरीर न हीन चिदानन, 'मोह मोहझकोरने | जग तप-हर भविकुमुदेंनिशाकर, मोदन दौलचकोरनै ॥ धनि० ॥ ४ ॥ (३) घनि मुनि जिन यह, भाव पिछाना ॥ धनि० ॥ टेक ॥ तनव्यय वांछित प्रापति मानी, पुण्य उदय दुख जाना ॥ धनि० ॥ १ ॥ एक विहारि नकेल - ईश्वरता, त्याग महोत्सव माना। सब सुख कों परिहार सार सुख, जानि रांगरुष भाना ॥ धनि० ॥ २ ॥ चित्स्वभावको चिंत्य प्रान निज, : १ स्तुति वा प्रसंशाको । २ वज्रसे। ३ कर्मरूपी कठोर पर्वतको ४ भव्यरूपी कमोदिनीकूं खिलानेवाले चंद्रमा । ५ ऐश्वर्य
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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