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________________ : १४६ जैनपदसागर प्रथमभाग (४) गुरुस्तुति - पदसंग्रह | ( १ ) रेखता । जिन रागरोष त्यागा वह सतगुरू हमारा ॥ ॥ जिन० ॥ टेक ॥ तज राजरिद्ध तृणवत, निज काज सँभारा ॥ जिन० ॥ १ ॥ रहता वह वन खंडमैं, धरि ध्यान कुठारा। जिन मोह महातरु को, जडमूल उखारा ॥ जिन० ॥ २ ॥ सर्वाग तज परिग्रह, दिग अंवर धारा । अनंतज्ञान गुणसमुद्र, चारित्रभंडारा ॥ जिन०॥३॥ शुक्लाग्निको प्रजालकै, वसुकर्मबन जारा! ऐसे गुरु को दौल है, नमोस्तु हमारा ॥ जिन० ॥ ४ ॥ [२] घनि मुनि जिनकी, लगी लौ शिव ओरेने ॥ धनि० ॥ टेक ॥ सम्यग्दर्शनज्ञान चरननिधि, धरत हरत भ्रमचौर ॥ घनि० ॥१॥ यथाजात १ लगन । २ 'नै' विभक्ति सब जगह 'को' के अर्थमैं है । ३ नग्नदिगम्बर मुद्रा |
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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