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________________ AAA NANAINA NNN १३४ः । जैनपदसागर प्रथमभागभाषी केवलज्ञानी,समझताशाजाहि लखे निर्म- . लपद पावै, कुमतिकुगतिकी हानी । उदय भया जिहिमैं परकासी, तिहँ जानी सरधानी ।। समः झत०॥२॥ जामैं देव धरम गुरु वरने, तीनों मुकति-निसानी । निश्चय देव धरम गुरु आतम, जानत विरला पानी ॥ समझत० ॥३॥ या जगमाहि तुझे तारनको, कारण नाव बखानी । धानत सो गहिए निहसों, हज ज्यों शिवथानी ॥ समझत०॥४॥ (१४) - वे पानी सुज्ञानी जिन जानी जिनवानी वे॥ टेक ॥चंदसूर हु दूरकरैं नहिं, अंतर तमकी हानी ॥०॥१॥ पच्छ सकल नय भच्छ करत हैं, स्यादवादमै सानी ॥ वे॥२॥द्यानत तीन भवन मंदिरमैं दीवट एक बखानी ॥ ३०॥३॥. (१५) तारनको जिनवानी ॥ तारनको० ॥ टेक ॥. मिथ्यात. चूरै समकित. पूरै, जनम जरामृतु हानी
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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