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________________ १९४ जैनपदसागर प्रथमभाग बाँधे विधिनंदे | इनकी कृपातें अब मिटि जैहैं, विपदाके सब फेद || आनंद० ||२|| केवल खेत सुभग सुछतापर, वारों कोटिक चंद । चरनकमल बुधजन उर भीतर, ध्यावै शिवसुखकंद || आनंद० ॥ ३ ॥ : १५३ । राग - ईमन जल्द विताको । : शरन गही मैं तेरी, जग-जीवन जिनराज जग पति ॥ शरन०॥ टेक ॥ तारनतरन करन पावन लग, हरन करम-भवफेरी ॥ शरन || १|| ढूंढत फिरयो भरचो नानादुख, कहूं न मिली सुखसेरी यातें तजी आनकी सेवा, सेव रावरी हेरी ॥ शरन ॥ २ ॥ परमैं मगन विसारचो आतम, घरचो भरम जगकेरी | ये मति तजूं भजूं परमातम, सो बुधि की मेरी ॥३॥ १५४ | पंजाबी भाषामें । - करमूंदों कुपेंच मेरे है दुखदाइयां हो ॥ टेक ॥ करम हरन महिमा सुन आयो, सुनिए मैंडी १ कर्मवंद । २ कर्मोका । ३. मेरी ।
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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