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________________ ११६ जैनपदसागर. प्रथमभाग ही तत्त्व विचार | आज० ॥ १ ॥ थांके विछुरे अति दुख पायो, मोपे कह्यो न जाय । अब सनमुख तुम नयनों निरखे, धन्य मनुष्य परजाय ॥ आज ● ॥ २ ॥ आजहि पातक नास्यो मेरो, ऊतरस्यों. भवपार । यह प्रतीत बुधजन उर आई, लेस्यों शिवसुख सार || अंज• ॥ 1 १४२ | रेखता । ऋषभ तुमसे खाल मेरा, तुही है नाथ जगकेरा ॥ ऋषभ० ॥ टेक ॥ सुना इंसाफ है तेरा, विगर मतलब हितू मेरा० ॥ ऋषभ० ॥ १ ॥ हुई अर होयगी अब है, लखो तुम ज्ञानमें सब । इसी से आपसे कहना, औरसे गरज क्या लहना ॥ ऋषभ० ॥ २ ॥ न मानी सीख सतगुरुकी, न जानी बाट निजघरकी । हुवा मदमोहमें माता, घने विषयन के रँगराता ॥ ऋषभ० ॥ ३ ॥ गिना परद्रव्यको मेरा, तबै बसु कर्मने घेरा । हरा गुन ज्ञानधन मेरा, करा विधि जीवको चेरा ॥ ऋषभ० ॥ ४ ॥ नचावै स्वांग रचि
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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