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________________ - ११० जैनपदसांगर. प्रथमभागजनकी अरदास यही है, हर संकट मवफिरनको। हम०॥४॥ · . १३० । राग लूहरि मीणाकी चालमें । · अहो देखो केवलज्ञानी, ज्ञानी छवि भली या विराजै हो, भली या विराजै हो ॥अहोगाटेक॥ सुरनरमुनि याकी सेव करत हैं, करम हरनके काजै हो ।। अहो० ॥१॥ परिगहरहित प्रातिहारजजुत, जगनायकता छाजै हो। दोष विना गुन सकल सुधारस, दिविधुनि मुखतें गाजैहो। अहो० ॥२॥चितमें चितवत ही छिन माहीं, जन्म जन्म अघ भाजै. हो। बुधजन याकों कबहु न विसरो, अपने हितके काजै हो॥ अहो० ॥॥३॥. १३१ । राग-सारंग लूहरि। .. श्रीजिनतारनहारा येतो मोनै प्यरा लागो राज श्रीजिन०॥ टेक ॥ बारह सभा विच गंधकुटीमें, राज.रहे महराज ॥श्रीजिन॥१॥अनँतकालका भरम मिटत है, सुनतहिं आप अवाज ॥ श्री.
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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