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________________ १६ जैनपदसागर प्रथमभाग ॥ टेक ॥ निकसे घर आरतिकूप तुम पद-परशनको ॥ हम० ॥ १ ॥ वैननिसों सुगुन निरूप, चाहें दर्शन को || हम० ॥२॥ द्यानत ध्यावें मन रूप, आनंद वरसनको ॥ हम० ॥ ३ ॥ (- १०१ ) तुम तार करुना धार स्वामी आदिदेव निरंजनो ॥ तुम० ॥ टेक ॥ सार जग आधार नामी, भविकजनमनरंजनो ॥ तुमं० ॥ १ ॥ निराकार जमी अकामी, अमल देह अमंजनो ॥ तुम० ॥ २ ॥ करहु द्यांनत मुकतिगामी, 'सकलं भवभयभंजनो ॥ तुम० ॥ ३ ॥ PACL * (१०२) 16 1. इक अरज सुनो साहिब मेरी ॥ इक० ॥ टेक ॥ चेतन एक बहुत जड घेरचों, दई आपदा “बहुतेरीं ॥ इकः ॥ १ ॥ हम तुम एक दोन इन कीने, विनकारन बेरी गेरी ॥ इकः ॥ २ ॥ द्यानत तुम तिहुं जंगके राजा, करो ज कछु "करुणा नेरी ॥ इक० ॥ ३ ॥ ·
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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