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________________ जैनपदसागर प्रथमभाग (७८) प्रभु अब हमको होहु सहाय ॥ प्रभु०॥टेक।। तुम बिन हम बहु जुग दुख पायो, अब तव परसे पांय॥प्रभु०॥॥तीनलोकमें नाम तिहारो; है सबको सुखदाय । सोई नाम सदा हम गावे, रीझ जाहु पतियायः॥ प्रभुना२॥ हम तो नाथ कहाए तेरे, जावें कहां सु बताय । बांह गहेकी लाज निवाहो, जो हो त्रिभुवनराय ।। प्रभु०॥३॥ द्यानत सेवकने प्रभु इतनी, विनती करी बनाय। दीनदयाल दया घर मनमें, जमत लेहु बचाय।। प्रभु०॥४॥ (७९) . प्रभु मैं किहविधिथुति करूं तेरी॥प्रभुनाटेका गणधर कहत पार नहिं पावत,कहा बुद्धि है मेरी ॥प्रभु०॥१॥ शक्र-जन्मधर सहस जीमकर, तुम जस होत न पूरा । एकजीभ कसैं गुण गावै उलू कहै किम सूरी ॥ प्रभु०॥२॥ चमर छत्र १ इन्द्रका जन्म धरकर । २ उल्लू पक्षी। ३. सूरज | :
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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