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________________ जैनपदसागर प्रथमभाग(७५) हमको प्रभु श्रीपास सहाय || हमको ०॥ जाको दर्शन करते जबहीं, पातक जाय पलाय ॥ हमको० ॥ जाको इंद फनिंद चक्रधर, बंदै सीस नवाय. | सोई स्वामी अंतर - जामी, भव्यनिकों सुखदाय || हमको ० ॥ १ ॥ जाके चार घातिया बीते, दोष जु गए विलाय । सहित अनंत चतु ठ साहिब, महिमा कही न जाय ॥ हमको० ॥ ३ ॥ कियो बडो मिल्यो है हमको, गहि रहिये मनलाय । द्यानत अवसर वीत जायगो, फेर न कछू उपाय | हमको ० ॥ ४ ॥ ( ७६ ) ज्ञानी ज्ञानी ज्ञानी नेमजी ! तुमही हो ज्ञानी ॥ ज्ञानी० ॥ टेक ॥ तुम्ही देव गुरु तुम्ही हमारें, "सकल दरब जानी ॥ ज्ञानी ॥ १ ॥ तुम समान कोउ देव न देख्या, तीनभवन छानी । आप तरे भविजीवनितारे, ममता नहिं आनी ॥ ज्ञानी • १ सहारा आश्रयस्थान अर्थात् दो गांवके बीच में ठहरनेकी जगह है। 1
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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