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________________ फल है । वे अपने व्यक्ति गत द्वेषको भी समानकी छातीपर पटक कर उसके सर्व नाशके लिए कोई बात उठा नहीं रखते और फिर उस अकर्त्तव्यको वे सफलता समझते है । पर यह सफलता ऐसी ही है कि बुराई करके उसे अज्ञानतासे भलाई समझना । बुद्धिमान् इस सफलताका आदर नहीं करते । किन्तु उसे घृणाकी दृष्टिसे देखते है । हा इस हलचलसे इतना तो अवश्य हुआ कि ऐसे वडे समारोहमें बम्बईसभाके लिए कुछ द्रव्य संचित हो जाता, अथवा वाहरकी संस्थाओंके लिए भी कुछ सहायता मिल जाती, वह इन जासूओंकी समाजपर सुदृष्टि रहनेसे न होने पाई । धार्मिक कार्योंमें दान देकर उन्हें सहायता पहुचा कर-जो हमारे भाई पुण्य सम्पादन करते उसे इन श्रीचरणोंने अपनी वीरतासे खूब हगाम मचाकर सम्पादन न करने दिया और उस श्रेयके बदलेमें एक नवीन श्रेय स्वय सम्पादन कर लिया । मनुष्य स्वार्थक पाशमें बद्ध होकर कितना अन्याय कर सकता है, कहा तक अपने आत्माको गिरा सकता है यह हमने भी खूब जान लिया । और साथ ही यह विश्वास कर लिया कि स्वार्थसे-तुच्छातितुच्छ स्वार्थसे-अपने अनन्त शक्तिशाली आत्माको नीचेसे नीचे गिराने वाले पैसेके गुलाम और सकीर्ण हृदयी पुरुपोंकी हमारी जातिमें कमी नहीं है । पैसे ! तू धन्य । तेरे गुलाम सब कुछ करनेको तैयार रहते है। इसी लिए तुझे धन्यवाद देना पड़ता है। अधिक क्या मूर्ख तो तेरी गुलामी करते ही है, परन्तु पढ़े लिखे, बुराई और भलाईको जानने वाले विद्वान् भी तेरे अनन्य हास होते दीख पड़ते है । तेरी कृपासे जो कुछ हो वह थोड़ा है । अस्तु ।
SR No.010369
Book TitleJain Tithi Darpan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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