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________________ (४१) एकता। यह वात किसीसे छिपी हुई नहीं है कि ऐहिक और पारलौकिक उन्नतिका वीज एकता है। यदि हम संसारकी प्रत्येक वस्तु पर ध्यान देंगे तो हम जान सकेंगे कि वे सब एकतासे खाली नहीं है। देखिये, वर्णमालाके अक्षरोंकी एकतासे शळ पद वाक्यादि बनते है । वाक्योंके द्वारा हम अपने इष्ट अभिप्रायोंको कहकर तथा लिखकर प्रगट कर सकते है । जैन वाङ्मय, जिससे हमारा आत्मकल्याण होता है, एक मात्र वर्णमालाके अक्षरोंकी एकताका प्रभाव है । मंत्र तत्रका अचिन्त्य प्रभाव भी एकताके विद्युत् चमत्कारसे खाली नहीं है । वस्त्र, जिसके द्वारा हम अपने शरीरकी रक्षा करते है वह भी सूतके डोरोंकी एकताका आविष्कार है। बीमारियोंको निर्मल करनेवाली औषधिया मी एकताके मंत्रसे पवित्रित है। जिन घरोंमें हम रहते है वे भी ईट मिट्टी पत्थर आदिकी एकतासे बने है । सूतके धागोंकी एकतासे बने हुए रस्सों द्वारा मदोन्मत्त हायी वाधे जाते है-इत्यादि । जिधर देखिए उधर ही आपको सारा संसार एकता मय दीख पडेगा । फिर क्यों न हम भी इस महाशक्तिके प्राप्त करनेका प्रयत्न करें क्यों न इसे अपनी नाति भरमें फैला दें ? यह तो हुई एकताकी महिमा । अव अनेकताके महत्त्वको सुनिये-जहा इसका पदार्पण होता है वहीं सब उन्नतिका अन्त हो जाता है। सब सामाजिक और धार्मिक काम नष्ट हो जाते है । परस्परमें कपायोंकी अग्नि धधक उठती है । हृदय द्वेष और ईपीका स्थान बन जाता है। भाईको भाई घृणा दृष्टि से देखने
SR No.010369
Book TitleJain Tithi Darpan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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