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________________ ( १४ ) लोगोंको धोखा देकर ठगते हैं, विश्वास देकर उसका कर डालते है, सीधे साधे और भोले भाले मनुष्यको अपने जाल में फंसाकर उसपर आपत्तिका पहाड ढहा देते हैं, बाहरी दोंगसे धर्मात्मा वनकर लोगोंको अपने पलेमें फंसानेकी कोशिश करते है, एक एक पैसेके लिए हजारों झूठी प्रतिज्ञा कर डालते है, गरीबोंको तकलीफ देनेमें कुछ कसर नहीं रखते है, दिनमें हजारों बार झूठ बोलते है, चोरी करते हैं, ऊपरसे अहिंसा -- के माननेका ढोंग बनाकर भीतर ही भीतर मायाचार - छल-कपटके द्वारा लोगों पर बुरी तरह वारकरके उनको दीन दुनियासे खो देते है, अपनी माता और बहनोंपर बुरी निगाह डालनेमें हमें लज्जा नहीं आती है, हम भगवानके दर्शन करनेका बहाना बनाकर वहा माता बहनोंके पवित्र दर्शन करते हैं, करते हैं भगवानकी पूजन, पर हमारा ध्यान रूपकी हाटके देखने में लगा रहता है, हम मन्दिरोंको धर्मायतन कहते हैं पर वहां पाप करनेमें कुछ लज्जित नहीं होते, हम लोगों पर यह जाहिर करते हैं कि हम बड़े धर्मात्मा हैं पर उसकी आड़में हम चरम दर्जेका अन्याय करनेसे नहीं हिचकते, हम अभिमान करते है, पर अभिमान कैसा ! जिससे जाति और देश घूलमें मिल जाय, हम निर्बलों पर अत्याचार करते हैं पर उसे बुरा नहीं समझते, आदि, महापापसे बचनेका कुछ प्रयत्न करते हैं या नहीं ? हमारा धर्म सब जीवोंके साथ मित्रताका उपदेश देता 1 हैं, पर हम भी किसीके साथ मित्रता करते हैं या नहीं ! राग, द्वेष क्रोध, मान, माया, लोभ, ये आत्माके पूर्ण शत्रु कहे गये हैं पर इनसे हम भी अपनी रक्षा करते हैं या नहीं ? अपने आत्माको सदा पवित्र
SR No.010369
Book TitleJain Tithi Darpan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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