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________________ २ यद्यपि केवलज्ञान के आधार पर उक्त कल्पना की जा सकती है, परन्तु यह ऐकान्तिक कल्पना है तथा इससे ससारी जीवो मे पुरुषार्थहीनता का भी दोष आता है, कारण कि केवलज्ञान मे कार्यकारणभाव की व्यवस्था ही नही बनती है कार्यकारणभाव की व्यवस्था तो श्रु तज्ञान मे ही सभव है तथा श्रु तज्ञानी जीवो को मुक्ति प्राप्त करने के लिये केवलज्ञान की व्यवस्था उपयोगी न होकर पुरुषार्थ को जाग्रत करने वाली श्रु तज्ञान द्वारा प्रस्थापित अनेकान्तमयी कार्यकारणभाव की व्यवस्था ही उपयोगी होती है जिसमे न तो वस्तु मे उतनी योग्यतायें स्वीकार करने की आवश्यकता है जितने परिमाण भूत, वर्तमान और भविष्यत् रूप मे काल के समयो का विभाग सभव है और न इस बात को मानने की आवश्यकता है कि वस्तु मे होने वाले प्रत्येक परिणमन का समय नियत है। इसी प्रकार निमित्त अकिंचित्कर है इस अनर्थकारी व्यवस्था को भी मानने की आवश्यकता नहीं है । मुझे अपनी इस पुस्तक मे प० फूलचन्द्र जी की ऊपर निर्दिष्ट मान्यताओ की ही मुख्य रूप से मीमासा करनी है क्योकि जैनतत्त्वमीमासा के अन्य सभी विषयो की भूमिका इन्हीं मान्यताओ पर आधारित है । वैसे आवश्यकतानुसार इसमे जैनतत्त्वमीमासा के सभी विषय चचित किये जावेगे। इसके लिये सर्वप्रथम कार्य के प्रति निमित्तो की सार्थकता के सम्बन्ध मे विचार किया जा रहा है। (३) कार्य के प्रति निमित्तों को सार्थकता लोक मे कार्यकारणभाव को लक्ष्य मे रखकर निमित्तो का उपयोग किया जाता है, जैन आगम ग्रन्थो मे भी कार्योत्पत्ति के अवसर पर निमित्तो की स्थिति को स्वीकार किया गया है और प० फूलचन्द्र जी ने भी जैनतत्त्वमीमासा पुस्तक मे
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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