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________________ ३१३ हुआ करती है अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और सज्वलन क्षायो के उदय मे नही, क्योकि इनका कार्य तो क्रमश देशव्रत, महाव्रत तथा यथाख्यात चारित्र को घात करना ही है । अर्थात् अप्रत्याख्यानावरणादि उक्त कपायें यथायोग्य रूप मे अनिवार्यता को प्राप्त आरम्भी पापो मे ही जीव की प्रवृत्ति कराती है । इस तरह यह सिद्ध हुआ कि जीव की क्रियावती शक्ति का मन, वचन (मुख) और काय की अधीनता मे होने वाला पूर्वोक्त प्रकार का शुभ या अशुभरूप क्रियात्मक (योगात्मक ) परिणमन तो यथासभव ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के प्रकृतिवन्ध और प्रदेश बन्ध का अर्थात् आस्रव का कारण होता है और उसमे जो अनन्तानुबन्धी आदि कषायो का राग अथवा द्व ेष रूप अनुरञ्जन रहा करता है वह उन कर्मों के स्थिति वन्ध और अनुभागबन्ध का कारण होता है । दर्शन मोहनीय कर्म का उदय यद्यपि ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से विकास को प्राप्त जीव की भाववती शक्ति के उपयोगात्मक ज्ञानरूप परिणमन को ही विकारी बनाता है तथापि उसके साहचर्य मे यथासभव कषायो का उदय अवश्य रहा करता है इसलिए उक्त कर्म वन्ध मे उसे भी कारण माना जाता है । यहाँ इतना विशेष समझना चाहिये कि मिथ्यात्व कर्म के उदय के साहचर्य मे अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और सज्वलन इन चारो ही कषायो का उदय रहा करता है, सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के उदय के साहचर्य मे अनन्तानुबन्धी कपाय को छोडकर शेष तीन कपायो का उदय रहा करत
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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