SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 333
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९७ सहयोग से ही होता है । अतएव कार्योत्पत्ति मे निमित्त अकिचित्कर न होकर कार्यकारी ही होता है । इस कथन से मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हू कि प० जगन्मोहन लाल जी अपने पूर्वोद्धृत "एक कार्य के लिये जो निमित्त सामग्री बाधक हो वह दूसरे कार्य के लिये साधक हो जाती है" इस कथन के आधार पर यदि यह बात स्वीकार कर लें कि स्वपरप्रत्यय कार्य उपादानगत निजी योग्यता के आधार पर होते हए भी निमित्त कारण के सहयोग से होता है तो फिर उनके उक्त कथन का आगम के साथ कोई विरोध नही रह जाता है। व्यवहाररत्नत्रय की धर्म रूपता या मोक्ष कारणता के समर्थन मे भी मेरा यह कहना है कि यद्यपि निश्चय रत्नत्रय से ही जीव को मोक्ष की प्राप्ति होती है, परन्तु उसे निश्चयरत्नत्रय की प्राप्ति व्यवहाररत्नत्रय के आधार पर ही होती है जैसा कि पूर्व मे स्पष्ट किया जा चुका है। इस तरह मोक्ष के साक्षात् कारणभूत निश्चयरत्नत्रय की प्राप्ति का कारण होने से व्यवहाररत्नत्रय मे भी परम्परया मोक्ष कारणता सिद्ध हो जाती है । अत मोक्ष कार्य के प्रति व्यवहार रत्नत्रय भी अकिंचित्कर न होकर कार्यकारी ही सिद्ध होता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि जिस प्रकार निश्चयरत्नत्रय मोक्ष का कारण होने से धर्म है उसी प्रकार व्यवहाररत्नत्रय भी मोक्ष का कारण होने से धर्म है। केवल यह विशेपता है कि निश्चयरत्नत्रय मोक्ष का साक्षात् कारण होने से जहाँ निश्चय धर्म है वहा व्यवहाररत्नत्रय मोक्ष का परम्परया अर्थात् निश्चयरत्नत्रय का कारण होकर कारण होने से व्यवहार धर्म है। इस विवेचन के आधार पर मेरा कहना है कि प० फूलचन्द्र जी, प० जगन्मोहनलाल जी और उनके सपक्षीजन
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy