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________________ १६९ को वे जो कल्पित, असत्य या कथनमात्र मानते है वह अयुक्त और आगम विरुद्ध ही है । जीव की ससारावस्था और पुद्गल की कर्म व नोकर्मरूप अवस्था की वे जो निमित्त की अपेक्षा के बिना ही अपने आप उत्पत्ति स्वीकार करते है इसका खण्डन विस्तार से किया ही जा चुका है तथा आगे भी किया जायगा । इतना अवश्य है कि वह बद्धता जीव और पुद्गल दो द्रव्यो के आश्रित होने से व्यवहार कोदि मे ही समाविष्ट होती है निश्चय कोटि मे नहीं। - जीव की कर्म तथा नोकर्म के साथ और पुद्गल कर्म व नोकर्म की जीव के साथ होने वाली उक्त वद्धता परस्पर की निमित्तता के आधार पर अनादि काल से चली आ रही है और जैसा कि पूर्व मे बतलाया जा चुका है कि इसी का नाम ससार है तथा इसकी समाप्ति अर्थात् जीव तथा कर्म व नोकर्म का सर्वथा पृथक्-पृथक् हो जाने का नाम मुक्ति है। इस तरह जीव की यह सब ससाररूप अवस्था हेय है फिर भी इसमे इतनी विशेपता समझ लेनी चाहिये कि जीव तया नोकर्मों की वद्धता जीव तथा अघातो कर्मों की वद्धता के समाप्त हो जाने पर अपने आप समाप्त हो जाती है इसे समास करने के लिए जोव को पुरुषार्थ नही करना पड़ता है। लेकिन जीव तथा अघाती कर्मो को बद्धता को समाज करने के लिए जीव व्यूपरत. क्रियानिवर्तिध्यान रूप पुरुषार्थ का सहारा लेता है। जीव की मोह कर्म के उदय मे मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्या चारित्ररूप औदयिक परिणात हुआ करती है व यथायोग्य मोहनीय कर्म के क्षयोपशम मे क्षायोपशमिक • सम्यग्दर्शन और क्षायोपशमिक सम्यक् चारित्ररूप, उपशम मे
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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