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________________ १५० (२) पं० जी की इस बात को भी मैं मानता हू कि ससारी जीव को स्वयं निश्चय स्वरूप बनने के लिये अनादिकाल से चले आ रहे अपने अज्ञानमूलक व्यवहार का ही लोप करना है । परन्तु इस विषय में में यह कहना चाहता हूँ कि उसके लिये ( ससारी प्राणी के लिये ) पराश्रित अशुभ प्रवृत्तिरूप व्यवहार तो सर्वथा हेय है, लेकिन पराश्रित शुभ प्रवृत्तिरूप व्यवहार हेय होते हुए भी किसी एक सीमा तक उन ससारी जीवो के लिये भी उपादेय है जो स्वय ( आप ) निश्चयस्वरूप बनने की चेष्टा करने लगते हैं । अर्थात् धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थी का अपने जीवन मे समन्वय करते हुए अन्त मे केवल धर्म पुरुषार्थी अर्थात् मोक्ष पुरुषार्थी वन जाते हैं । इसके अतिरिक्त एक व्यवहार ऐसा भी होता है जो त्याज्य तो है लेकिन उसे छोडने के लिये जीव को पुरुषार्थ नही करना पडता है वह अनुकूल परिस्थितियो का निर्माण होने पर स्वत छूट जाता है तथा एक व्यवहार ऐसा भी होता है जो न तो त्याज्य है और न कभी छूटता ही है । इन सब प्रकार के व्यवहारो के विषय में मैं आगे विवेचन करूंगा । ( ३ ) १० जी की इस बात से भी मैं सहमत हूँ कि जिन्हे व्यवहार के लोप का भय बना हुआ है वे मज्ञानी हैं परन्तु इस विषय मे भी मैं इतना और कहना चाहता हूँ कि विवक्षित व्यवहार का लोप करके निश्चयरूप बनना तो उत्तम है लेकिन व्यवहाराश्रित बने रह कर अपने को परमार्थवादी ( निश्चयस्वरूप ) समझने वाले जो लोग व्यवहाररूप प्रवृत्ति करते हुए भी अपनी परमार्थवादिता (निश्चयरूपता) को प्रगट करने के लिये पुण्यमय शुभ प्रवृत्ति और पापमय अशुभ प्रवृत्ति के मध्य पाये जाने वाले अन्तर को सर्वथा समाप्त कर देना
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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